क्या आप इमेजिन कर सकते हो यह धरती जिस पर हम सभी इंसानों ने जन्म लिया है यह धरती जो घर है आंगनत प्रकार के
जीवों का यही धरती आज से 400 करोड़ साल पहले एक उबलता हुआ लावे का गोला था एक ऐसा गोला जिस पर जिंदगी का कोई नामो निशान तक नहीं था ऐसे में जाहिर सी बात है सवाल उठता है आखिर यह लावे का गोला हमारी आज की पृथ्वी में कैसे बदल गया यह सारा पानी कहां से आया हमारे चांद यानी मून की फॉर्मेशन कैसे हुई इस सबका कनेक्शन है दोस्तों हमारे सूर्य और सोलर सिस्टम के जन्म से आइए समझते हैं इन सभी चीजों को गहराई से।
आज से करीब 4.6 बिलियन इयर्स पहले यानी 460 करोड़ साल पहले की बात है हमारा सोलर सिस्टम एजिस्ट नहीं करता था इसकी जगह था तो सिर्फ अंधकार गहरी शांत और खाली स्पेस इस स्पेस में घूम रहा था धूल और गैस से भरा हुआ एक बादल इस बादल को हमने सोलर नेबुला(solar nebula) का नाम दिया है हिंदी में इसे निहारिका कहा जाता है इसमें कई प्रकार की गैसेस मौजूद थी लेकिन मोस्टली हाइड्रोजन और हीलियम सबसे ज्यादा मात्रा में पाई जाती थी यह बादल शांति से करोड़ों अरबों सालों से अंतरिक्ष के अंधेरे में घूम रहा था कि अचानक से एक दिन एक बड़ा धमाका होता है नहीं मैं बिग बैंग की बात नहीं कर रहा मैं बात कर रहा हूं सुपरनोवा की यह धमाका इस बादल के अंदर नहीं होता बल्कि इसके बगल में होता है
इसके पास मौजूद एक डाइंग स्टार एक्सप्लोड्स स्लोज को हम सुपरनोवा बुलाते हैं और अक्सर यह उन स्टार्स के साथ होता है जो अपनी लाइफ के एंड तक पहुंच चुके हैं इस धमाके की शॉक वेव्स हमारे सोलर नेबुला पर पड़ती हैं और इसके चलते ग्रेविटेशनल इंस्टेबिलिटी आ जाती है इस बादल के कुछ एरियाज में गैस और डस्ट कंप्रेस करने लगता है धीरे-धीरे यह पूरा नेबुला अंदर की ओर सिकुड़ने लगता है और जो गैस और धूल थी वो घूमने लग जाती है गोल-गोल घूमने लग जाती है एक रोटेटिंग डिस्क के रूप में इस फ्लैट रोटेटिंग डिस्क को हम प्रोटो प्लेनेटरी डिस्क का नाम देते हैं प्रोटो का मतलब है पहले प्लेनेट के आने से पहले की डिस्क ये डिस्क कैसी दिखती होगी
क्योंकि ये डिस्क चपटी हुई है फ्लैट है इससे हमें यह भी समझ में आता है कि हमारा सोलर सिस्टम एक फ्लैट सोलर सिस्टम क्यों है हमारे सोलर सिस्टम के सारे प्लेनेट जब सूरज के अराउंड गोल-गोल चक्कर लगाते हैं वो ऑलमोस्ट एक ही प्लेन में रहते हैं ऐसा नहीं है कि किसी प्लेनेट का ऑर्बिट ज्यादा ऊपर नीचे हो एक दूसरे से अब इस प्रोटो प्लेनेटरी डिस्क के बीचोबीच प्रेशर और टेंपरेचर दोनों बढ़ते रहते हैं जिसके चलते
एक प्रोटोस्टार का जन्म होता है
प्रोटोस्टार यानी फिर से वही मतलब कि स्टार के बनने से पहले जो चीज एजिस्ट करती थी अब धीरे-धीरे यहां पर नेबुला का सारा मटेरियल बीच की ओर खींचा जाता गया बढ़ती गर्मी और दबाव के कारण पर एक पॉइंट ऑफ टाइम पर जाकर ये इतना ज्यादा कंसंट्रेटेड हो गया बीच में कि न्यूक्लियर फ्यूजन का रिएक्शन होने लगा हाइड्रोजन गैस का फ्यूजन रिएक्शन है
जो लगभग 15 मिलियन डिग्री सेल्सियस पर होता है इस रिएक्शन में हाइड्रोजन हीलियम में बदल जाता है इसी फ्यूजन रिएक्शन की वजह से हमारे सूरज का जन्म होता है और यही वो रिएक्शन है जो आज के दिन तक भी सूरज में हो रहा है जिसकी वजह से धूप गर्मी और रोशनी हमें मिलती है धरती पर एक्चुअल रिएक्शन डिटेल में थोड़ा कॉम्प्लेक्टेड जन हीलियम में बदल रही है उस वक्त 4.6 बिलियन इयर्स पहले हमारे सोलर नेबुला का ज्यादातर गैस और डस्ट सारा सूरज में जाकर इकट्ठा हो रहा था यही कारण है कि आज के दिन भी हमारे पूरे सोलर सिस्टम का टोटल मास का लगभग 99.8 पर सिर्फ सूरज में मौजूद है
और बाकी जो 0.2 है वो बेकार नहीं गया उसी 0.2 पर से बनते हैं आठ प्लेनेट सैकड़ों मूस हजारों कॉमट्स और लाखों एस्टेरॉइड्स हमारे सोलर सिस्टम में।
कैसे बनने शुरू हुए ये प्लेनेट:-
लेकिन सवाल ये कि कैसे बनने शुरू हुए ये प्लेनेट ये चीज भी बड़ी इंटरेस्टिंग है जो वो घूमती हुई प्रोटो प्लेनेटरी डिस्क थी उसके अंदर छोटे-छोटे धूल के पार्टिकल्स आपस में टकराने लगे और चिपकने लगे एक दूसरे से ये स्टैटिक या केमिकल बॉन्डिंग फोर्सेस की वजह से होने लगा और शुरू में इससे छोटे-छोटे गुच्छे बनने लगे लाखों सालों बाद धीरे-धीरे गुच्छे और बड़े होने लगे जब और धूल के पार्टिकल्स इनसे जाकर टकराए धीरे-धीरे इनमें से कुछ इतने बड़े बन गए कि उनका साइज 1000 मीटर से लेकर कुछ किलोमीटर तक पहुंच गया इन चीजों को हम प्लेनेट डेसिमल्स करके पुकारते हैं
यानी कि प्लेनेट का बहुत छोटा टाइनी वर्जन जब ये प्लेनेट डेसिमल्स ग्रेविटी के प्रभाव से इकट्ठे होने लगे और साइज और मास में लगभग हमारे चांद जितने बड़े हो गए
तो हम इन्हें प्रोटोप्लैनेट करके पुकारने लगे ये जो पूरे इकट्ठे होने का प्रोसेस है इसे हम एक्रीशन कहते हैं एस्ट्रोनॉमी की फील्ड में एक्रीशन की डेफिनेशन देखो द कमिंग टुगेदर एंड कोहेन ऑफ मैटर अंडर द इन्फ्लुएंस ऑफ ग्रेविटेशन टू फॉर्म लार्जर बॉडीज मैटेरियल्स के एक्यूमेन से लार्जर बॉडीज का निर्माण होना एक्रीशन के इस प्रोसेस को सोवियत यूनियन के एस्ट्रोन विक्टर साफरान ने साल 1969 में पहली बार दुनिया के सामने रखा था
लेकिन शुरुआत में उनको किसी ने सीरियसली नहीं लिया ये सिर्फ 1984 में जाकर ही था कि जब साफरान के काम को पढ़ा जाने लगा और उनके आइडियाज को साइंटिफिक कम्युनिटी द्वारा अपनाया जाने लगा आज के दिन एक्रीशन का ये प्रोसेस साइंटिस्ट पूरे ब्रह्मांड में बार-बार देख चुके हैं होते हुए
टेलीस्कोप्स के जरिए एस्ट्रोनर्जी चीज होते हुए देखिए है कि धूल के पार्टिकल्स काफी तेजी से इकट्ठे हो जाते हैं और सिर्फ चंद हजार सालों में ये 1 सेंटीमीटर तक के पार्टिकल्स बन जाते हैं क्योंकि ये अलग-अलग स्टेजेस में होता हुआ देखा गया इसलिए साइंटिस्ट अब सेफली कह सकते हैं ।
लाखों सालों बाद यही छोटे-छोटे पार्टिकल्स और बड़े होते रहते हैं और बाद में प्लेनेट बन जाते हैं इसी प्रोसेस का एक और सबूत हमें मेटराइड में भी देखने को मिलता है जो जो मेटियर्स धरती पर आकर गिरते हैं साइंटिस्ट जब उन्हें स्टडी करते हैं और देखते हैं कि उनके अंदर कौन-कौन से मैटेरियल्स मौजूद है तो एक चीज जो काफी पाई गई है मेटराइड में वो है कोंडरू धूल और चट्टान के छोटे-छोटे टुकड़े हैं जो प्लेनेट बनने से पहले के समय से बचे हुए हैं इनके अंदर यूरेनियम और हफनियम जैसे रेडियोएक्टिव एलिमेंट्स बंद होते हैं जो साइंटिस्ट को उनकी उम्र पता करने में मदद करते हैं वैसे एक इंटरेस्टिंग फैक्ट यहां पर ये भी है कि हमारी पृथ्वी पर पाया जाने वाला यूरेनियम हमारे सोलर सिस्टम से भी पुराना है इसे 6 बिलियन इयर्स पुराना माना जाता है इसका मतलब यह किसी सुपरनोवा में बना था।
यही सारा मेजरमेंट्स का डटा कलेक्ट करके धूल और प्लेनेट जमल्स के कॉलेजनस के कुछ सिमुलेशंस साइंटिस्ट बना पाते हैं और उन सिमुलेशन से हम एस्टिमेट्स बनने में टेंस ऑफ मिलियंस ऑफ इयर्स का समय लगा होगा अब हमारी धरती की बात करें तो ये जो छोटे प्रोटो प्लेनेट और प्लेनेट इमल्स थे इनके बीच अक्सर टकराव होते रहते थे और ये टकराव कोई छोटे नहीं थे बहुत जबरदस्त एनर्जी निकलती थी इनमें इतनी गर्मी पैदा होती थी की चट्टाने पिघल जाती थी और इनके ऊपर लावा के समुद्र बन जाते थे जैसे जैसे ये प्रोटो प्लेनेट एक दूसरे से टकराते गए इनका साइज बढ़ता गया ग्रेविटी के कारण इन्होंने ओवर टाइम एक गोले की शेप लेनी शुरू कर दी एक स्फेरिकल शेप और ऐसे ही कुछ टकराव के बाद जन्म हुआ हमारी धरती का।
यह जो समय था जहां पर कांस्टेंटली बमबारी चलती रहती थी हमारी धरती से आकर छोटे प्रोटो प्लैनेट्स टकराते तो कभी प्लेनेट इमल्स टकराते इस समय को हम हेडन इऑन करके
पुकारते हैं
इयोन शब्द का असली में मतलब है एक बहुत-बहुत इंडेफिनटली लंबा समय और हेडन जो नाम है यह अंडरवर्ल्ड के ग्रीक गॉड हेडी से आया है इस नाम को रखने के पीछे क्या कारण था आप समझ सकते हो उस वक्त नर्क जैसी हालत थी धरती पर इस समय 4 6 बिलियन इयर्स पहले से लेकर 4 बिलियन इयर्स पहले तक चला इस समय कुछ कुछ ऑब्जेक्ट जो धरती से टकराए व 100 किलोमीटर बड़े थे कुछ 200 किलोमीटर बड़े थे तो जो भी चट्टाने उस वक्त धरती पर हुआ करती होंगी वह सब पिघल जाती थी और सब की सब लावा में बनती रहती थी बार-बार दब रहती थी
लेकिन अब कमाल की बात देखो दोस्तों यही नर्क जैसा समय कारण था जिसकी वजह से धरती पर पानी आया कुछ कॉमट्स और एस्टड जो धरती से टकरा आते थे उनमें काफी ज्यादा मात्रा मौजूद होती थी पानी की अब आप पूछोगे लेकिन उन एस्टेरॉइड्स और कॉमट्स में पानी कहां से आया इसके पीछे कारण है दोस्तों सोलर नेबुला वो धूल का बना जो वो बादल था जिसकी मैंने शुरू में बात करी थी उसमें कुछ आइस क्रिस्टल्स भी होते थे और कुछ पानी एक्चुअली में धरती पर खुद भी मौजूद था जब इस इयोन युग से संबंधित माइक्रोस्कोपिक क्रिस्टल्स के भीतर फंसे हुए मिनरल्स की
एनालिसिस करी तो पता चला कि पृथ्वी पर भी लिक्विड वाटर मौजूद था लेकिन ज्यादातर जो पानी की मात्रा बढ़ रही थी उसके पीछे एक बड़ा कारण था ये जो एस्टेरॉइड्स और कॉमेट धरती से आकर टकरा रहे थे इसके अलावा एक दूसरा प्रोसेस भी हो रहा था
जब ये कॉलेजनस होती थी धरती के साथ तो पानी भाप बनकर हवा में चला जाता था और समय समय पर बरसने लगता था वापस धरती पर इस हिडन युग के खत्म होने तक हमारी पृथ्वी एक होमोजीनस बॉल बन चुकी थी चारों तरफ मैग्मा ही मैग्मा था लगभग एक समान रूप की लावा की लेयर बन गई थी धरती के अराम इसे ग्रेविटी ने साथ में बांध कर रखा था और इसके बाद शुरू हुआ सिलसिला डिफरेंशियल(Differential) आए कि हमें ये कैसे पता चला कि उस समय पर सही में ये सब हुआ था इसके पीछे कई सारी टेक्निक्स हैं
1. Radiometric:- पुराने पत्थरों की रेडियोमेट्रिक डेटिंग करना स्टडी करना बिलियंस ऑफ साल पुरानी मिनरल्स को और देखना कि उनका कंपोजिशन कैसा है।
2. Comparative Planetarium:- बाकी प्लैनेट के कंपोजिशन को देखना की रिसेंट हिस्ट्री में कैसे दिखते थे और कैसे दोबलेप किए।
3. Computer Simulations:- कम्प्यूटर सिमुलेशंस रन करना जो गैसेस और एलिमेंट्स उस समय में मौजूद थे उन सबका डाटा कंप्यूटर में इनपुट करना और मॉडल के थ्रू रन करके देखना कि वो मॉडल कैसे बिहेव करता है।
आज के दिन हम सब जानते हैं कि मेनली तीन लेयर्स हैं धरती की क्रस्ट मेंटल और कोर अब हेडिन यन के एंड तक आते-आते अर्थ का जो क्रस था वो ऑलरेडी बनना शुरू हो चुका था लेकिन सही मायनों में जो तीन लेयर का सेपरेशन है ये इसके
अगले काल में ही देखने को मिलता है The Archaean Eon(आर्कियन युग) आर्कियन शब्द आता है ग्रीक वर्ड आर्कि से जिसका मतलब होता है बिगिनिंग(Beginning) तो इस युग से बेसिकली हम कंसीडर करते हैं कि सही माइनों में धरती का जन्म होना शुरू हुआ। यह समय 4 बिलियन इयर्स पहले से लेकर 2.5 बिलियन इयर्स पहले तक चला इस समय में हुआ क्या कि धरती जो एक लावे के गोले की।तरह थी इसमें अलग-अलग एलिमेंट्स मौजूद थे जो भारी एलिमेंट्स थे जैसे कि आयरन(Iron) और निकल(nickel) जो बाकी एलिमेंट्स के कंपैरिजन में ज्यादा डेंस थे वो धीरे-धीरे इस मैग्मा के अंदर फ्लो करके धरती के सेंटर की ओर खींचने लगे।
"ठीक उसी तरीके से जैसे पानी रेत में से अपना रास्ता बनाता है"
इसके पीछे सिंपल कारण था ग्रेविटेशन का फोर्स जो भारी एलिमेंट्स हैं आयरन और निकल वो सेंटर की तरफ खींचते गए और जो हल्के एलिमेंट्स हैं वो धीरे-धीरे बहकर ऊपर की
तरफ आते गए जैसे कि सिलिकॉन ऑक्सीजन एलुमिनियम सोडियम पोटेशियम या अलग-अलग एलिमेंट्स का ऊपर और नीचे जाना समय के साथ-साथ बहुत ज्यादा बढ़ता गया और धीरे-धीरे धरती के सेंटर में धरती का कोर बनने लगा जब ये आयरन और निकल इकट्ठे फ्यूज होने लगे हम सब जानते हैं कि धरती का कोर सबसे ग गर्म कंपोनेंट है धरती का तापमान 6000 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है आमतौर पर जो आयरन है लोहा है वो इस टेंपरेचर पर मेल्ट हो जाना चाहिए लेकिन धरती के सेंटर में प्रेशर इतना ज्यादा होता है कि वो इस टेंपरेचर पर मेल्ट नहीं होता बल्कि आयरन और निकल सॉलिड फॉर्म में धरती के कोर में मौजूद है
Mantle:-
आज के दिन भी ऐसा ही है और ये टेंपरेचर इतना ज्यादा
होने के पीछे कारण सिर्फ ज्यादा प्रेशर और ग्रेविटेशनल फोर्स नहीं है एक और कारण है मेंटल लेयर में हो रहा कांस्टेंट
रेडियोएक्टिव डीके यूरेनियम थोरियम और पोटैशियम जैसे एलिमेंट्स मेंटल(Mantle) की लेयर में मौजूद हैं जिनका कांस्टेंटली रेडियोएक्टिव डीके हो रहा है और ये पृथ्वी की गर्मी का एक बड़ा मेन सोर्स है मैंटल(Mantle) जो है ये सबसे मोटी लेयर है 3000 किमी से ज्यादा मोटी है आज के दिन ये लेयर सॉलिड है लेकिन उस समय ये लेयर सॉलिड नहीं होती थी यहां मैग्मा होता था यहां हल्के एलिमेंट्स जब धीरे-धीरे ऊपर आ रहे थे।
Crust:-
तो उनके ठंडे होने से इसके ऊपर की लेयर क्रस्ट की फॉर्मेशन होने लगी ऑक्सीजन का एलिमेंट इस क्रस्ट में सबसे ज्यादा एबंडेंट एलिमेंट था क्रस्ट(Crust) का जो मास था 46% सिर्फ ऑक्सीजन से ही बनता था अब यहां पर अगर इन एलिमेंट्स की डिटेल में जाएं तो बहुत लंबी डिस्कशन करी जा सकती है।
जो अलग-अलग प्रकार के पत्थर आज के दिन क्रस्ट पर पाए जाते हैं ग्रेनाइट बेजॉल्ड क्रस्ट की गहरी लेयर्स में पाई जाने वाली मेटामैटेरियल कट ट्रांजिशन दिखता है जैसे-जैसे आप धीरे-धीरे मेंटल से ऊपर आते रहते हो क्रस्ट की ओर क्योंकि मार्बल(Marble) और स्लेट(Slate) जैसे पत्थर जो होते हैं ये बहुत हाई प्रेशर और टेंपरेचर के प्रभाव से बनते हैं इसलिए ये क्रस्ट(Crust) की गहरी लेयर्स में ही पाए जाते हैं और अगर इन पर और भी ज्यादा हीट और प्रेशर लगाया जाए तो ये फिर से मैग्मा में बदल जाते हैं इसके अलावा ऊपरी लेयर्स में सेडिमेंट्री रॉक्स(Sedimentary Rocks) होती हैं जैसे कि सैंड स्टोन ये वो पत्थर जो वेदरिंग की वजह से कांस्टेंटली टूटते रहे और नए बनते रहे जब इन पर धूप हवा पानी और बर्फ पड़ी तो कोयले को भी यहां पर एक सेडिमेंट्री रॉक कंसीडर किया जाता है एक ऐसी सेडिमेंट्री रॉक का उदाहरण है
ये जिस पर दोनों केमिकल और फिजिकल रिएक्शंस देखने
को मिले तो कुल मिलाकर बात यही है कि लाखों करोड़ों सालों तक ये डिफरेंशिएबल का ये प्रेसिस चला जिसमें अलग-अलग लेयर्स बनती रही हम छोटी क्लासेस में अक्सर बच्चों को पढ़ाते हैं कि ये डिफरेंशिएबल और कोर की है लेकिन एक्चुअली में इसमें बहुत सारी डिफरेंशिएबल के बाद अगर आप कभी जियोलॉजी और डिटेल में जाकर पढ़ोगे तो आपको पता लगेगा कि एक्चुअली तीन नहीं बल्कि पांच और लेयर्स में इन्हें बांटा जाता है इनकी फिजिकल प्रॉपर्टीज को देखकर ये लेयर्स है लिथोस्फीयर एथेनोवा आउटर कोर और इनर कोर लिथोस्फीयर सबसे ऊपर की लेयर इसे खुद दो हिस्सों में
बांटा जाता है ओशनिक और कॉन्टिनेंट जो क्रस्ट ओशनस के ऊपर मौजूद है और जो क्रस्ट कॉन्टिनेंट्स पर मौजूद है इनमें भी अपने आप में बहुत बड़ा फर्क है
समुद्रों पर जो क्रस्ट की लेयर है वो काफी पतली है
एवरेज मोटाई लगभग 100 किमी की है लेकिन कॉन्टिनेंट्स पर मौजूद जो क्रस्ट की लेयर है वो 280 किमी तक हो सकती है यहीं पर हम बात करते हैं टेक्टोनिक प्लेट्स(tectonic plates) की क्योंकि ये जो लेयर है ये कंटीन्यूअस (Continuous) नहीं होती बल्कि कई हिस्सों में टूटी हुई होती है इन प्लेट्स की बाउंड्रीज जहां एक दूसरे से मिलती है वहां पर वोल्केनो देखने को मिलते हैं जब ये एक दूसरे से रब करती हैं तब अर्थ क्वेक्स(Earth Quakes) आते हैं इसके नीचे जो एथनो स्फेयर की लेयर है वो रिजिन नहीं है वो कांस्टेंटली मूव करती रहती है एक लुब्रिकेंट की तरह बनती है एथेनोवा लेयर अनलाइक लिथोस्फीयर कंटीन्यूअस है इसमें कोई टुकड़े नहीं है एवरेज मोटाई लगभग 140 किमी की इसके नीचे आते-आते लोअर मेंटल के ऊपरी भाग में एक ट्रांजिशन जोन देखने को मिलती है जहां चट्टानें अधिक से अधिक डेंस हो जाती हैं
ऐसी चट्टानों के कुछ उदाहरण देखिए ओलिवाइन(Olivine) पेरिडइट(Peridite) रिंग वूडाइट(RingWoodite) ये हाई प्रेशर मिनरल्स मेंटल के अंदर बनते हैं और जैसा आप देख सकते हो दिख में बहुत ही सुंदर लगते हैं आप सोचोगे अगर ये मिनरल्स मेंटल के अंदर मिलते हैं तो हम बाहर निकाल के इन्हे कैसे देख पाते हैं एक्चुअली में हम इन्हें बाहर नहीं निकालते नेचर धरती बाहर निकालती है
1. कई बार ऐसी वल्केन इरप्शन होती है जहां पर वोल्केनो से निकलने वाला मैग्मा मेंटल से आता है और अपने साथ यह हाई प्रेशर मिनरल्स लेकर आता है
2. कई बारी क्या होता है जब मेटियोरॉइड्स धरती पर आकर टकराते हैं तो वो इतने स्पीड से उनका टकराव होता है कि उस प्रेशर से से भी ये मिनरल्स कई बारी बन जाते हैं
अब इससे अंदर कोर की लेयर पर आए तो वहां जो आउटर कोर की लेयर है वहां गर्मी के कारण आयरन चर्नर रहता है जिसकी वजह से इलेक्ट्रिकल करंट पैदा होते हैं। क्योंकि हम सब जानते हैं लोहा बहुत ही अच्छा कंडक्टर है इलेक्ट्रिसिटी का और इन इलेक्ट्रिक करंट से अपनी एक मैग्नेटिक फील्ड बनती है ये मैग्नेटिक फील्ड एक बहुत बड़ा कारण है जिसकी वजह से धरती पर लाइफ सस्टेन कर पाती है क्योंकि इसी मैग्नेटिक फील्ड की वजह से सूरज से आने वाले बहुत ही हानिकारक चार्जड पार्टिकल्स हम पर नहीं
गिर पाते सोलर विंड से हमें प्रोटेक्शन मिलती है और एक एटमॉस्फेयर बनी रह पाती है
आउटर कोर और इनर कोर की लेयर में सबसे बड़ा डिफरेंस यही है कि आउटर कोर जो है वो लिक्विड है और इनर कोर सॉलिड है लेकिन यहां एक इंटरेस्टिंग फैक्ट जैसे-जैसे आउटर कोर का लिक्विड ठंडा हो रहा है वो धीरे-धीरे सॉलिड में कन्वर्ट हो रहा है और इनर कोर की लेयर इसी कारण से हर साल लगभग 1 मिलीमीटर बढ़ती रहती है
अब इस पूरी कहानी में एक सवाल यह आता है कि चांद कहां से आ गया
धरती ने तो जन्म ले लिया लेकिन मून कहां से आया धरती के पास इसका जवाब भी दोस्तों हेडियन ईऑन(hedean eon) में ही छुपा है साइंटिस्ट(Scientist) ने कई थ्योरी सोची थी कि क्या कारण हो सकता है चांद होने के पीछे।
1. कैप्चर सिद्धांत(Capture Theory) कि ये एक ऐसा प्लेनेटरी ऑब्जेक्ट था जो धरती के नजदीक आया और धरती के ग्रेविटेशनल फोर्स ने इसे कैप्चर कर लिया इसे कैप्चर थ्योरी कहते हैं ।
2. सह गठन सिद्धांत(coformation theory) चांद और पृथ्वी एक ही साथ फॉर्म हुए थे जब धरती की फॉर्मेशन हो रही थी अलग-अलग डस्ट पार्टिकल्स इकट्ठे हो रहे थे तो चांद भी वहीं पर पर फॉर्म हुए जा रहा था।
3. विखंडन सिद्धांत(fission theory) एक फिजन थ्योरी कि धरती से ही टूटकर एक हिस्सा चांद बन गया।
लेकिन असलियत पता है क्या इनमें से कोई भी थ्योरी सच नहीं थी आज के दिन ज्यादातर साइंटिस्ट का मानना है कि धरती से एक और प्लेनेट आकर टकराया था और इस टकराव की वजह से चांद की फॉर्मेशन हुई थी इसे कहा जाता है जाइंट इंपैक्ट हाइपोथेसिस(Giant Impact Hypothesis) इसके अनुसार लगभग 4.5 बिलियन इयर्स पहले जब अर्थ की फॉर्मेशन हो ही रही थी तब एक और प्रोटो प्लेनेट एजिस्ट करता था उसका नाम हमने रखा है थिया(Theia) ये करीब मार्स के साइज का प्लेनेट था सोलर सिस्टम फॉर्म होने के करीब 100 मिलियन साल बाद यह प्लेनेट आकर धरती से टकरा जाता है
इस वक्त धरती सिर्फ एक लावा की गेंद थी ये वाला प्लेनेट भी वही था तो इस टकराव से होता क्या है दोनों प्लेनेट का कोर एक दूसरे में अब्जॉर्ब हो जाता है इसी बीच एक बड़ा टुकड़ा टूटकर बाहर निकल जाता है जो चांद बनता है अर्थ का जो टोटल मास है उसका करीब 30% मास हमारे आयरन रिच कोर का है लेकिन मून के केस में ये सिर्फ 1.6% से 1.8% ही है इसका मतलब ये है कि ज्यादातर जो मेटल्स थे उस दूसरे प्लेनेट में वो एक्चुअली में आज धरती पे ही मिल गए हैं और
धरती का ही हिस्सा बन गए हैं और चांद जो है वो इस टकराफ के मलबे से निकला है।
यहां भी आप सोचोगे लेकिन ये सब हमें पता कैसे चल पाया असल में बात क्या है कि जब पहली बार नासा ने अपोलो मिशंस भेजे थे मून पर तो वो अपने साथ बहुत सारी चांद की मिट्टी लेकर आए चांद के मेंटल से जो सैंपल्स मिले बेसोट रॉक्स के वो धरती पर पाए जाने वाली बेसोट रॉक्स से काफी सिमिलर थे चांद पर पाए जाने वाले पत्थरों में जो ऑक्सीजन
आइसोटोप और बाकी एलिमेंट्स थे वो पृथ्वी की चट्टानों में मिल रहे ऑक्सीजन और बाकी एलिमेंट से भी बहुत मिलते-जुलते थे तो इस पर्सपेक्टिव से देखा जाए वो जो तीन
रिजेक्टेड थ्योरी थी उनमें फिजन थ्योरी सबसे करीब पहुंची थी चांद असल में धरती का ही हिस्सा था लेकिन ऐसा नहीं था कि धरती अपने आप ही अचानक से एक दिन टूट गई और चांद निकल गया हो धरती का हिस्सा तभी टूटा जब एक और प्लेनेट इससे आकर बहुत ही भयानक तरीके से टकराया।
लेकिन कमाल की बात पता है क्या है अगर यह टकराव नहीं होता तो आज हम यहां जिंदा भी नहीं होता क्योंकि इसी टकराव की वजह से धरती के एक्सिस पर एक बहुत बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।
हमें 23.5 डिग्री का रोटेशनल टिल्ट देखने को मिला इसकी वजह से बिना इस रोटेशनल टिल्ट के हमें गर्मी से सर्दियां सर्दी से गर्मियां ये सीजंस ही नहीं देखने को मिलते क्लाइमेटिक वेरिएशंस इतनी ज्यादा हो जाती कि लाइफ को अडेप्ट कर पाना बहुत मुश्किल होता।
दूसरा बिना चांद के हम में टाइट्स नहीं देखने को मिलते लो टाइड हाई टाइड ये जो वेरिएशंस आती हैं इन्हीं वेरिएशंस की वजह से लिविंग ऑर्गेनिस्ट मस पानी से जमीन पर आ पाए अब धरती पर और आर्कय नियोन में वापस आए तो कई और चीजें ऐसी हुई जिसकी वजह से लाइफ को शुरू होने का मौका मिल पाया।
तीन मेन लेयर्स की सेपरेशन के बाद स्टेबिलिटी बढ़ने लगी वल्केन एक एक्टिविटी देखने को मिली ज्वालामुखी फटे जिसमें बड़ी मात्रा में वाटर वेपर कार्बन डाइऑक्साइड मीथेन और अमोनिया जैसी गैसेस ऊपर हवा में गई ये वास्तव में गैसेस का बहुत ही खराब मिश्रण है क्योंकि इसमें ऑक्सीजन की बहुत कमी है लेकिन समय के साथ-साथ जैसे-जैसे पृथ्वी धीरे-धीरे ठंडी होती गई वाटर वेपर ने कंडेंस करना शुरू कर दिया ये कंडेंस्ड वाटर वेपर पृथ्वी पर बारिश के रूप में बरसने लगा और लाखों करोड़ों साल बाद जाकर हमें सरफेस पर विशाल महासागर देखने को मिले।
कांस्टेंटली एस्टेरॉइड्स और कोमेट्स का जो इंपैक्ट हो रहा था भारी संख्या में मौजूद इस लिक्विड वाटर ने एक बहुत-बहुत महत्व पूर्ण काम किया हमारे जीवन के लिए इसने हमारी एटमॉस्फेयर से ज्यादातर कार्बन डाइऑक्साइड और हीट को एब्जॉर्ब कर दिया।
इसी की वजह से धरती के सरफेस पर टेंपरेचर्स इतने प्लेजट बन पाए ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी कमाल की बात पता है क्या है दोस्तों आज के दिन भी इंसानों के द्वारा जो कार्बन डाइऑक्साइड रिलीज होती है कार्बन एमिशंस देखने को मिलते हैं ज्यादातर कार्बन एमिशंस एक्चुअली में हमारे ओसस के द्वारा ही अब्जॉर्ब किए जाते हैं बहुत से लोगों को लगता है कि यहां पर मेन कंट्रीब्यूशन जंगलों का और पेड़ों का होता है लेकिन ऐसा नहीं है असली में ये काम समुद्र कर रहा है लेकिन अनफॉर्चूनेटली ये है कि धीरे-धीरे समुद्र की कैपेसिटी फुल होती जा रही है।
मैंने आपको बताए ये सब प्री कंडीशंस थी अगर ये चीजें ऐसे ना होती तो शायद लाइफ को कभी मौका नहीं मिल पाता उभर कर आने का।
1. धरती का सूरज से एक सही डिस्टेंस पर होना ना ज्यादा दूर ना ज्यादा पास।
2. धरती का साइज सही प्रोपोर्शन का होना ना ज्यादा बड़ा ना ज्यादा छोटा ताकि ग्रेविटेशनल पुल सही हो सही तरीके के एलिमेंट्स को एटमॉस्फियर में रखने के लिए एगजैक्टली वही गैसेस को एटमॉस्फेयर में रखने के लिए जो हम चाहते हैं।
3. धरती के कोर में एगजैक्टली सही अमाउंट की मैग्नेटिक फील्ड होना एक ऐसी मैग्नेटिक फील्ड जो हमें सूरज की खतरनाक गामा रेज और एक्स रेज से बचा कर रखे।
4. सही मात्रा में वल्केन एक इरप्शन होना जिससे कि एक सही अमाउंट का ग्रीन हाउस इफेक्ट देखने को मिल सके अगर ग्रीन हाउस इफेक्ट ज्यादा एक्सट्रीम हो जाता है तो ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड देखने को मिलेगी ऑक्सीजन नहीं होगी और वही हालत होगी जो वीनस प्लेनेट पर होती है लेकिन अगर ग्रीन हाउस इफेक्ट कम होता है तो वही हालत होगी जो मार्स पर होती है।
5. ज्यादा ठंड होना एक स्ट्रांग एटमॉस्फियर ना मेंटेन कर पाना और सफिशिएंट अमाउंट में लिक्विड वाटर ना होना।
तो दोस्तों एक चीज का एहसास आपको यह सब सुनकर हो जाना चाहिए कि जो भी कुछ हुआ है वो बहुत ही अद्भुत है और इसीलिए इस अद्भुत प्लेनेट को बचाए रखना हम सबका कर्तव्य होना चाहिए इतनी।
सारी अलग-अलग सही चीजों का एक साथ हो पाना इतना रेयर है इतना रेयर है शायद यही कारण है कि आज तक हम कभी किसी एलियन लाइफ को नहीं ढूंढ पाए।
धन्यवाद 🙏
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